Friday, 28 December 2012

                                       संवाद की जरुरत 

प्रदक्षिणा पारीक 

देश एक बार फिर क्रांति के ज्वार में उबल रहा है। जनता फिर सडकों पर है आँखों में जूनून  और होंठों पर नारे लिए। गुस्साई जनता का नेतृत्व  कोई कर रहा है तो वह है  उनका एक उद्देश्य .....एक मांग।और वह मांग है गुनेह्गारों के लिए कड़े दंड का प्रावधान हो। महिलाओं पर शारीरिक अत्याचार जो जमानतीय अपराध की श्रेणी में रखे गए है उनमें बदलाव किया जाये। लेकिन  कानून में बदलाव का अधिकार जिन जनप्रतिनिधियों को सौंपा गया  है वे अपने महल से  बाहर आने को तैयार नहीं हैं। आम जनता सत्ता को झकझोर कर यह चेताने आई है की जो जहाँ गलत है उसे सही किया जाये। पर उनकी  तुलना माओवादियों से की जाने लगती है।
वे नेता ये भूल गए है की ये वही जनता है  जिनके बीच जाकर चुनावों  में ये खुद को धन्य समझते हैं।बड़ी से बड़ी जन सभा को संबोधित करना इन्हें नहीं अखरता क्योंकि वो चुनावों का वक़्त होता है और गेंद जनता के पाले में होती है।लेकिन सत्ता  मिलने के बाद गेंद जब नेताओं के पाले  में होती है ,काम उन्हें करना होता है तो वे  मौन साधना बेहतर समझते है और यदा कदा उनके मुहं से कोई बयान निकलते है ,वो एक  नया बवाल खड़ा करने को निकलते है। संवादहीनता किसी भी रिश्ते की दीमक है।और भी नहीं तो जब जनता मांगो को लेकर सडकों पर है तब तो ये रवैया छोड़ा जाये।स्थिति और रिश्ते, संवाद से ही सुधारे जा  सकते है ..... मौन से नहीं। जनप्रतिनिधि कहलाने वाले अगर जन से ही संवाद ना करे तब तो पूरी व्यवस्था ही व्यर्थ है।
उन्हें ये याद रहे की वो लोकतंत्र में जनता द्वारा निर्वाचित उनके प्रतिनिधि है राजशाही व्यवस्था में लोगों पर शासन करने वाले कोई शासक नहीं।

No comments:

Post a Comment